डॉ. भीमराव आंबेडकर

   जीवन में सफलता के लिए कठोर परिश्रम ही एक मात्र मार्ग है। कोई भी मनुष्य धन के अभाव एवं विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष करके महान बन सकता है। सफलता किसी की बपौती नहीं होती।




सफलता प्राप्ति के लिए कठोर परिश्रम, संघर्ष और लगन की आवश्यकता होती है। ऐसे सफल देशनेताओ में डॉ. भीमराव का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। अस्पृश्यता दूर करने के लिए उनका कार्य बड़ा प्रशंसनीय रहा है। उनका जीवन अन्याय और अस्पृश्यता के विरुद्ध एक लंबी लड़ाई की कहानी है।

          डॉ. भीमराव को आम बहुत पसंद थे। वे बाजार से आम ले आये थे। अपने घर में बैठे वे आम खा रहे थे। सामने बड़े टोकरे में बहुत सारे आम थे, अचानक उन्हें अपने चौकीदार की याद आई । आवाज देकर चौकीदार को घर के अंदर बुलाया और सामने पड़े टोकरे में से आम लेकर खाने के लिए कहा।

        दोनो मजे से बाते करते हुए आम खा रहे थे कि, एक पत्रकार वहां आ पहुंचा। उसने देखा इतना बड़ा आदमी सामान्य व्यक्ति को अपने सामने कुर्सी मैं बिठाकर आम खिला रहा है। मौका मिलते ही उसने अपने मन की बात कहनी चाही। पत्रकार ने डॉ. भीमराव जी से कहा,  " अरे साहब , अपने पद और प्रतिष्ठा का तो विचार कीजिए। आप तो वाइसराय की एक्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य हैं। आपका पद तो राज्यपाल के स्तर का है, ऐसे मामूली चौकीदार को अपने सामने कुर्सी में बिठाकर आम खाने के लिए कहना ठीक नहीं।"

          पत्रकार को उत्तर देते हुए उन्होंने कहा, " मानवता का स्थान वाइसराय की काउंसिल के सदस्य से ऊंचा है। इस समय मैं सरकारी दफ्तर में नही बैठा। मेरा चौकीदार भी ईमानदार इंसान हैं। मुझे उनके साथ मानवता पूर्ण व्यवहार करना चाहिए। गरीबी के कारण वह शायद पढ़ नही पाया होगा,अगर पढ़ा होता तो संभवत वह भी वाइसराय की एक्जीक्यूटिव काउंसिल का सदस्य होता।"

      आम्बेडकर जी के स्वभाव में मानवता की कोमलता थीं।इस प्रकार वे मानव का मानवता से सम्मान करते थे।

      एक स्त्री सरकारी सहायता के लिए राजगृह की देहली तक पहुंच गई। उनका पति बहुत बीमार था। अनेक प्रयासों के बाद भी कोई उसे अस्पताल में इलाज के लिए प्रवेश नही देता था। वह सीधे डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के पास पहुँची, उसने अपनी  व्यथा उन्हें सुनाई। रोते हुए उसने कहा,  "मैं गांव से आयी हु। बम्बई में मुझे कोई पहचानता नही, तत्काल इलाज न हुआ तो मेरा पति मर जाएगा। मैं विधवा हो जाऊँगी।"  उसकी आंखों से बहते आँसू भीमराव आंबेडकर देख न सके। उनका ह्दय पसीज गया। रात के दो बजे थे। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपनी मोटरकार निकाली। स्त्री औऱ उसके पति को लेकर सीधे ही सरकारी अस्पताल में पहुंच गए। उनके वहाँ पहुचते ही  अस्पताल के कर्मचारियों में भगदड़ मच गई। 'मंत्रीजी आए हैं' यह खबर पूरे अस्पताल में हवा की तरह फैल गयी।

        मंत्रीजी की सेवा के लिए सब तत्पर थे। उसी समय डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा, "मुझे कुछ नहीं हुआ है। मैं तो  इस स्त्री के पति को यहाँ अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती कराने आया हूँ।"

       तुरंत सारि व्यवस्था हो गई। उस स्त्री के पति का इलाज शुरू हो गया। सेवा करने के लिए वे सदैव इस तरह तैयार रहते थे।

     वे कहते थे - "शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो। महान बनो, दूसरों की महानता आपकी महानता से मिलने के लिए उठ खड़ी होगी।" अन्याय के सामने अपनी आवाज बुलंद करना और न्याय पाकर ही रहना हम उनके जीवन से सिख सकते है।

         14 अप्रिल, 1891 में मध्यप्रदेश के महू नामक गाँव में महार जाती के दलित परिवार में उनका जन्म हुआ था। रामजी सकपाल उनके पिताजी थे और माताजी का नाम भीमाबाई था। उन्हें बाग काम में अधिक रुचि थी। उनका पुस्तक प्रेम अदभूत था। जिसके कारण उनके ज्ञान में वृद्धि हुई और वे विद्धान बने।

         चौदार ताल का पानी दलितों को मिले उसके लिए संघर्ष पूर्ण सत्याग्रह किया। उन्हें उच्च नीच के भेदभाव अच्छे नही लगते थे। हमारे संविधान रचना की जिम्मेदारी तत्कालीन सरकार ने उन्हे सौंपी । यह काम उन्होंने बखूबी निभाया। संविधान का प्रारूप उन्होंने तैयार किया। उनके जीवन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

       ' बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना' करके उन्होने समाज सेवा का कार्य किया।

       6 दिसम्बर, 1956 के दिन उन्होंने अपनी अंतिम साँस ली। तब सारे भारतवासीयो ने उन्हें हदयपूर्वक श्रद्धांजलि दी। उनके जीवन से हम अन्याय का विरोध कर न्याय प्राप्ति के लिए तत्पर होने की बात सीखते हैं। अपनी प्रतिमा को उजागर करके हम भी उनकी तरह ही सफलता प्राप्त कर सकते है।

           

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